चोटी की पकड़–67
राजा साहब ने खिदमतगार को भेजा। कुछ ही अरसे में दिलावर आया। भीतर बुलाकर राजा साहब ने पूछा, "आपके पीछे किसी को देखा?"
"राज मिल गया है। बाजार में ठहरा है। बाहर का आदमी है।"
"जहाँ-जहाँ जाए, आदमी लगा रक्खो, देखे रहे, मालूम कर ले, असली कौन है।"
"जो हुक्म।" कहकर दिलावर बैठक छोड़कर चला।
"हमारे लिए अच्छा होगा, अगर आप कलकत्ता चली जायँ, आप इस तरह हमारी ज्यादा मदद कर सकती हैं। यह आदमी आपके कारण आया है। क्या राजा साहब यह बतलाएँगे कि हमारा राज किसी को उनसे नहीं मिला।"
"नहीं, नहीं मिला। इनसे हम कहते, लेकिन दूसरे की बात है, इसलिए नहीं कहा।"
"हमें इसका दुःख नहीं।" एजाज दृढ़ हुई।
"हमारी किस्मत।"प्रभाकर ने कहा, "यह आदमी आपके लिए (एजाज की ओर उँगली उठाकर) आया है। यहाँ इसका कोई आदमी होगा। मुझसे मैनेजर का नाम लिया, मगर मैनेजर से इसकी जान-पहचान भी न होगी।"
राजा साहब सीधे होकर बैठे। प्रभाकर कहता गया, "जिस तरह भी हो, आप-लोगों में किसी से कोई आदमी मिलेगा। अब होशियारी से चलना है।"
राजा साहब चौंके।
"इसलिए कुछ रोज़ जाने की बात न करें। लेकिन जाना बहुत ज़रूरी है। नसीम यहाँ नहीं। इस मामले की वही मुखिया है।"
"यानी?" प्रभाकर ने पूछा।
"अभी हमारी चड्ढी नहीं गठी। यह राज बाद को। आपका असली नाम प्रभाकर है?"
"मैं प्रभाकर हूँ। और मैं कुछ नहीं जानता।"
'आप कलकत्ते में मुझसे मिलेंगे?"